मैंने तक़दीर से एक दिन पूछा,
अपनी ज़िन्दगी का फ़साना ,
ज़वाब में उसके लब्ज थे ,
इतना आसाँ नहीं इसे पाना ।
तनहाई ने फिर शिरकत की ,
रुसवाई और ग़ुरबत की सलाह ली ,
मेरी ज़िन्दगी के फ़साने को उसने ऐसे पेश किया,
कि मुझे गमो के सागर में ही डूबा दिया ।
हारे हुए मन से मैंने ,
लम्हों कि ओर नज़र घुमाई ,
मेरे हाल पर रहमत करके उसने ,
मुझे ज़िन्दगी के पलों की तस्वीर दिखाई ।
कुछ तस्वीरों में तबस्सुम छलके ,
कुछ ठहाके बन गए ,
कुछ ने अश्को को बहाया ,
तो कुछ ने ज़हमते ढाई ।
अपने सवाल के जुस्तजू में मैंने ,
बस यही जवाब है पाया ,
ज़िन्दगी के फलसफे को मै,
समझ कर भी , समझ नहीं पाया ।।
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